मै कोई प्यार पर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं रखने वाला हुँ, न ही प्यार पर कोई व्याखान देने वाला हुँ। ऐसा कहना आज के दौर में और आज 14 फरवरी 2018 को अधिक प्रासंगिक हो गया है जब वेलेंटाइन डे और महाशिवरात्रि एक ही दिन है। कुछ लोग, आज की मीडिया, और सोशल साइट अफवाह फैला रहें है कि 14 फरवरी को देशभक्त, आजादी के मतवाले और देश का सपूत भगत सिंह और उनके साथीयों को फांसी दी गयी थी। जबकि हकीकत यह है कि 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दी गई थी। इस ऐतिहासिक घटना की स्मृति आज भी हम भारतीयों के जेहन में संरक्षित है और आगामी सदियों तक सुरक्षित अपने पीढियों को विरासत के रूप में सौंपना हमारा कर्तव्य है।
प्यार एक खुबसूरत ऐहसास है। आज के युवा नहीं जानते ‘‘क्या यही प्यार है ?’’ और ‘‘हाँ यही प्यार है’’ इसमें क्या अंतर है। प्यार की सुन्दरता, सरलता एवं शुद्धता से अनजान युवक कुत्सित रूप से समाज में इसका प्रदर्शन लाल गुलाब के आदान-प्रदान करते हुए नजर आते हंै। जब कोई व्यक्ति इस क्रिया में अन्र्तविष्ट होता है तो उसे सबकुछ सुंदर, सलोना एवं सुहावना लगने लगता है, हर समय खुशगवार महसूस करता है। यह एक ऐसा समय होता है जो अमीरी-गरीबी, जात-पात, मान-सम्मान, धर्म, पंथ, सामाज का ऐहसास को तुच्छ एवं क्षीण कर देता है। सदियों से इस नाम पर लोगों में खून-खराबा होते आ रहें है कभी धर्म के नाम पर कभी जाति के नाम पर तो कभी अमीरी-गरीबी के नाम पर।
14 फरवरी कोे पश्चिमी देशों में मनाया जाने वाला पर्व इस दिन अपने शबाब पर ही होती है उनका रौनक ही अलग होता है। क्या पश्चिमी देश हमारे योद्धाओं, स्वतंत्रता सेनानियो, ऋषि मुनियों, महापुरूषों की शहादत या पूण्य तिथि का पर्व मनाते है ? अगर नही ंतो हम क्यों पाश्चात्य देशों की सभ्यता, संस्कृति के पीछे भागते हैं ? इस प्रसंग में गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ जी की कविता का अंश याद आता है -
जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधार नहीं
वह हृदय नही है पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं
संस्कृति क्या है ? यह कोई जीता-जागता स्वरूप नहीं है अपितु अमूर्त भावना है, एक ऐहसास है जो किसी विशेष क्षेत्र के निवासियों केे वजूद को अपने भावनात्मक डोर में मानवता से बांधने की क्षमता रखती है। हर संस्कृति की की कुछ विशिष्ठ लक्षण एवं विशेषताएँ होती है, जो प्राकृतिक आवो-हवा और वहाँ की परंपरा पर निर्भर करती है।
भlरतीय संस्कृति में जीवन के चार मूल्य है - धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष और पाश्चात्य संस्कृति में अर्थ और काम की ही महŸाा है। संस्कृति का उद्देश्य मानव जीवन को सुंदर एवं परिष्कृत करना है। एक ओर पश्चिमी सभ्यता के लोग हमारे योग, आयुर्वेद, धर्म और संस्कृति को अपनाने के लिए आतुर हैं तो दूसरी ओर हमारे युवक पाश्चात्य संगीत, वेश-भूषा, स्वछंदता, का अंधानुकरन करके हमारे सामाज में एवं वातावरण में गंदगी फैला रहें हैं। यदि कम कपड़े पहनना माॅडर्न होना है तो हमारे आदिवासी बंधु सदियों से माॅडर्न हैं। लज्जा स्त्रियों का आभूषण होता है, हम अपनी संस्कृति, सभ्यता भूलते जा रहे हैं और पश्चिमी सभ्यता के लोलुपता के पीछे भाग रहे हैं।
हमारा दुर्भाग्य है कि दिन-प्रतिदिन हमारे संास्कृतिक मूल्य एवं आदर्श पश्चिमी सभ्यता में विलीन होते जा रहे हैं। आज हमारी संस्कृति पास्चात्य संस्कृति के मोहपाश में जकड़ गया है और हम अपने सांस्कृतिक धरोहर को भूल चुके है। हम इस बदलाव की आंधी में इतने दूर चले गये हैं कि वापस आने का रास्ता दूभर हो गया है। कहीं ऐसा न हो कि अपने आने वाले पीढियो को सांस्कृतिक विरासत देने के लिए हमारे पास कुछ शेष ही न रह जाय। यह निश्चित है कि अगर आज हम न संभले तो कल पछताने के अलावा कुछ नहीं बचेगा।