मिथिला के माहानायक अयाची मिश्र
दुनियाँ में यदि आठवाँ आश्चर्य एवं अद्भुत विद्वता के परिचायक के रूप में माना जाने वाले एक ही महान विद्वान हो सकते है वो हैं भवनाथ मिश्र जिन्हें अयाची के रूप में जाना जाता है। का अयाची मिश्र प्रसि़द्ध संस्कृत विद्वान और मिथिला के महान विचारक के रूप में जाने जाते हैं। ’’अयाची शब्द अर्थ वह व्यक्ति है जो किसी भी चीज के लिए कभी किसी से याचना न किया हो।
अयाची मिश्र बहुत गरीब ब्राम्हण थे। उसने अपन पूरा जीवन डेड कट्ठा जमीन था इसी भूमि पर उनका फूस का घर था। इसी दौलत से उनकी पत्नी संतुष्ट रहा करती थी। वह भूमि पर साग-सब्जी की खेती करती थी और उससे परिवार के दोनों सदस्य प्रसन्न रहा करते थे। से अपना पूरा जीवन बिताया साग खा कर रहा लेकिन किसी से किसी तरह के मदद के लिए कहीं नहीं गये।
विद्वता उनके रग-रग समाया था, ऐसे विद्वान की कल्पना न ही कर सकते हैं न ही देखने को मिलता है वो थे वैसे तो उनके जन्म के स्थान का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है, सरिसब-पाही ग्राम के रहने वाले थे, पर कुछ लोग मिथिलांचल के दरभंगा जिले के आंघ्रा-ठारी ग्राम बतातें है जो अब वाचस्पति नगर के नाम से जाना जाता है। वह भवनाथ शिव के महान भक्त थे और हमेंशा पूजा-पाठ एवं भक्ति में उनका समय व्यतीत होता था। इन सभी के अलावे एक चिन्ता उन्हें हमेंशा सताता रहता था कि उनका कोई पुत्र नहीं था। हिन्दू धर्म के अनुसार पुत्र एक परिवार के विस्तार और पिता एवं अपने पूर्वजों के मृत्यु अनुष्ठान के बाद कर्ता का एकमात्र साधन है।
अयाची मिश्र अपने पुत्र के लिए कई वर्षों तक भवनाथ शिव जी की तपस्या एव पूजा-पाठ किया। एक दिन स्वयं भवनाथ शिव जी पसन्न हो कर दर्शन दिये और उनसे वरदान मांगने के लिए कहा। एक पुत्र के लिए भवनाथ शिव से कहा। भवनाथ भोलेनाथ ने उनके भाग्य को देखकर कहा कि उनके भाग्य में पुत्र नहीं है अतः वह खुद पुत्र के रूप में उनके यहाँ जन्म लेने का फैसला किया। एक नियत समय के बाद एक अद्भुत बालक का जन्म हुआ। बालक का नाम शंकर रखा गया। प्रसव काल में शंकर की माता को देखभाल करने वाली दाई (जिसे मिथिला मेे चमैइन कहा जाता है) को मजदूरी देने के लिए अयाची के पास कुछ नही था अतः उन्होने बालक शंकर की पहली कमाई उस दगरिन (दाई) को देने का वादा किया।
बालक शंकर को साक्षात भवनाथ शिव का वरदान प्राप्त था। वह बचपन से ही सभी शास्त्र, वेद-पुराण कण्ठस्थ था संस्कृत श्लोकों को वह स्पष्ट रूप से उच्चारण करता था। वैसे तो मिथिलांचल में कई विद्वान हुए पर अयाची एक ही थे। विद्वानों की धरती मिथिलांचल में दर्शन की रचना हुई। आज भी भवनाथ मिश्र (अयाची) को त्याग, आदर्श, उनके जीवन जीने की शैली उनके वचन के प्रति समर्पण अयाची शब्द को जीवंत करता है।
अयाची मिश्र के पुत्र शंकर मिश्र लिखते हैं कि मैने जो भी रचनाएँ की है उसमें मेरा कुछ भी नही है ये सभी मेरे पिता का ज्ञान है। भवनाथ मिश्र (अयाची) ने कभी कोई पुस्तक या ग्रंथ की रचना नहीं की। शंकर मिश्र लिखते हैं कि मेरा जो ज्ञान है वे सभी मैंने अपने पिता से कंठ विद्या के तहत प्राप्त किया है। बालक शंकर की तुलना केरल के आदि गुरू शंकराचार्य से किया जाता है।
एक बार राज दरभंगा के द्वारा विद्वानों का सम्मेलन बुलाया गया उसमें भवनाथ मिश्र को भी जाना था बालक शंकर भी उस सभा में जाने के लिए जिद करने लगे। अतः माता ने उन्हें सजा कर तैयार कर दिया और वे अपने पिता अयाची के साथ हाथी पर सवार होकर राज दरभंगा के सभा के लिए प्रस्थान हुए। वहाँ पिता के साथ आसन ग्रहण किया। कुछ देर में विद्वानों द्वारा शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। एक विद्वान प्रश्न करते थे तो दूसरा उसका जवाव देता था। जब कोई विद्वान प्रश्न करते थे तो बालक शंकर अपना हाथ उपर कर देते थे। जब कई बार उन्होंने ऐसा किया तो दरभंगा महाराज ने गौर किया कि यह बालक कुछ कहना चाहता है। उन्होंने बालक शंकर को खड़ा किया और उनसे पूछा कुछ अपना सुनाइये। बालक शंकर ने जवाव दिया कि ‘‘ अपन बानावल सुनाव कि किताबक लिखल‘‘ (अपना बनाया हुआ सुनावें कि किसी ग्रंथ का लिखा हुआ)। सभा में कानाफूसी होने लगा लोग कह रहे थे कि यह क्या बोलेगा यह तो बालक है। तभी बालक शंकर कहना सुरू किये -
'' बालोहं जगदानंदऽ। नमे बाला सरस्वती।
अपूर्णे पंचमें वर्षे। वर्णयामि जगत्रयम। ''
सुनकर दरभंगा महाराज अति प्रसन्न हुए और एक हीरे का हार उपहार स्वरूप उन्हें प्रदान किया। बालक शंकर वह हार लेकर घर आये और अपनी माता को दे दिया। महान बालक शंकर जो स्वयं भगवान शिव के अवतार थे भला उनकी माता कोई साधारण माता तो नही हो सकती थी। य़द्यपि उनकी माता बहुत गरीब थी लेकिन वह अयाची की पत्नी एवं बालक शंकर की माता थी। अतः उसने अपने वचन के अनुसार अपने बालक की पहली कमाई प्रसव काल में सेवा करनेवाली चमैइन (आधुनिक काल के अनुसार नर्स) को दे दिया। शब्द का मूल्य और बलिदान का इससे बड़ा परिचय कुछ भी नहीं हो सकता है और एक सामान्य महिला से तो असंभव ही है।
त्याग और समर्पन की अद्भुत लीला देखिए वह चमैइन (नर्स) ने हार को लेना स्वीकार नहीं किया और उस हार को राजा को लौटाने के लिए महल के दरवाजे पर पहुँच गयी। राजा के सिपाहियों ने उसे चोर समझ कर उसे पकड़ लिया और राजा के समक्ष पेश किया गया। राजा ने उस हार को देखकर पहचान लिया कि यह तो मैंने बालक शंकर को उपहार में दिया था। तभी उस चमैइन (नर्स) ने सारा वृतांत सुनाया। राजा ने इसके सत्यापन के लिए अयाची मिश्र को बुलाया। हकीकत जानने के बाद राजा का मन गदगद और गौरवांन्वित हो गया कि हमारे राज्य में ऐसे इमानदार, वचनबद्ध लोग हैं। उस चमैइन ने उस धन से अनेक मंदिर तथा तालाब का निर्माण कराया। आज भी बासोपट्टी के पास एक चमैनियाँ पोखर है जो उस क्षेत्र का सबसे बड़ा तालाब है।
यह प्रसंग हमें जीवन जीने की कला को सिखाता है। हमें सिखाता है कि यह स्वयं पर निर्भर करता है कि हमारे पास जो साधन है हम उस पर निर्भर हों किसी के पास हाथ न फैलायें। हमारे आनेवाली पीढी के लिए जीवन को सरल बनाने का संदेश है। किसी भी विपरीत स्थिति में भी किसी के सामने हाथ न फैलाओ। अपने समय का सदुपयोग ज्ञान अर्जन में करें, अपने वचन का पालन करें। अंततः हम यह कह सकते हैं कि सच्चाई के सामने भौतिक वस्तुओं का मूल्य नगण्य होता है।
मुझे गर्व है कि दरभंगा मेरी जन्मस्थली है, हमारे पास अयाची, शंकर तथा उनकी पत्नी जैसे चरित्र, वचन के प्रति समर्पित, दर्शन, त्याग, जीवन जीने की शैली की प्रतिभा है। हम शत् शत् उनको नमन करते हैं।
कृते: अजय कुमार ठाकुर