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शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

चतुःश्लोकी भागवतम्

चतुःश्लोकी भागवतम्
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श्रीमद्भागवत पुराण हिन्दु धर्म के सर्वाधिक आदरणीय पुराण है। इस पुराण में 12 स्कंध हैं जिसमें श्री विष्णु के अवतारों का वर्णन किया गया है। भागवत का अर्थ, अर्थात भगवान विष्णु की उपासना, श्री विष्णु की भक्ति और श्री विष्णु की सेवा करने वाला, ईश्वर या श्रीहरि का भक्त होता है। वैसे तो श्री विष्णु अनंत और अपरंपार हैं। इसलिए कहा गया है कि -

‘‘हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहइहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।।’’ 



कहा जाता है कि श्री विष्णु अनंत हैं और अपरंपार हैं इसी प्रकार उनकी कथा भी अनंत है विभिन्न प्रकार के संत विभिन्न प्रक्रार से कथा सुनते हैं और सुनाते हैं। आज के इस भौतिक युग में अधिकांश लोगों के पास 7 दिनों तक भागवत कथा श्रवण के लिए समय नहीं होता है। 

ब्रम्हाजी के द्धारा श्री नारायण की स्तुति करने पर भगवान विष्णु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत का सार केवल चार श्लोकों में सुनाया था। वही चार श्लोक चतुःश्लोकी भागवत है। कलियुग में इस चतुःश्लोकी भागवत के पठन एवं श्रवण मात्र से सम्पुर्ण भागवत कथा का फल प्राप्त होता है। जो इस प्रकार हैं  -

चतुःश्लोकी भागवतम्
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श्रीभगवानुवाच-


ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्।
सरहस्यं तदड्गं च गृहाण गदितं मया।।1।।

यावानहं यथाभावो यद्रूपगुणकर्मकः।
तथैव तत्वविज्ञानम् अस्तु ते मदनुग्रहात्।। 2।।

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम्।
प्श्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्।। 3।।

ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः।। 4।।

यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्।। 5।।

ऐतावदेव जिज्ञास्यं तत्वजिज्ञासुनात्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभयां यत्स्यत्सर्वत्र सर्वदा।। 6।।

एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना।
भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित्।। 7।।

इति श्रीमद्भागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्त्र्यां  सहितायां वैयासिक्यां द्वितीस्कन्धे भगवद्ब्रम्ह संवादे चतुःश्लोकी भागवतं समाप्तम्।

श्रीभगवान बोले - (हे चतुरानन) मेरा जो ज्ञान परम गोप्य है, विज्ञान (अनुभव) से युक्त है और भक्ति के सहित है उसको और उसके साधको मैं कहता हूँ सुनो ।। 1 ।।

मेरे जितने स्वरूप हैं, जिस प्रकार मेरी सत्ता है और जो मेरे रूप , गुण, कर्म हैं, मेरी कृपा से तुमको उसी प्रकार तत्व का विज्ञान हो ।। 2।।

सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था, मेरे अतिरिक्त जो स्थूल, सूक्ष्म या प्रकृति हैं, इनमें से कुछ भी नही था सृष्टि के पश्चात् भी मै ही था, जो यह जगत (दृश्यमान) है, यह भी मैं ही हूँ और प्रलयकाल में जो शेष रहता है वह मैं ही हूँ।। 3 ।।

जिसके कारण आत्मा में वास्तविक अर्थ के न रहते हुए भी उसकी प्रतीति हो और अर्थ के रहते हुए भी उसकी प्रतीति न हो, उसी को मेरी माया जानो; जैसे आभास (एक चन्द्रमा मे दो चन्द्रमा का भ्रमात्मक ज्ञान) और जैसे राहु (राहु जैसे ग्रहमडलों में स्थित होकर भी नहीं दिख पड़ता है)।। 4।। 

जैसे पाँच महाभूत उच्चावच भौतिक पदार्थों में कार्य और कारण भाव से प्रविष्ट और अप्रविष्ट रहते हैं, उसी प्रकार मैं इन भौतिक पदार्थों में प्रविष्ट और अप्रविष्ट रहता हूँ (इस प्रकार मेरी सत्ता है)।। 5।।

आत्मा के तत्व जिज्ञासु के लिये इतना ही जिज्ञास्य है, जो अन्वयव्यतिरेक से सर्वत्र और सर्वदा रहे वही आत्मा है।। 6।। 

चित्त परम एकाग्रता से इस मत का अनुष्ठाान करें, कल्प की विविध सृष्टियों में आपको कभी भी कर्तापन  का अभिमान न होगा।। 7।। 

1) भागवत कथा तृष्णा रहित वृत्ति  है श्रोता को कथा श्रवण का फल मिलता ही है लेकिन कथा वाचक को दो फल मिलता है एक वाचन का तथा दूसरा श्रवण का।

2) भागवत कथा से मनुष्य के अंतःकरण की शुद्धि होती है। संत मनुष्य अंतःकरण की शुद्धि के लिए कथा रूपी और सतसंग रूपी झाडु लगाते हैं।

3) जो मनुष्य बार-बार भागवत कथा का श्रवण करते है तो श्रीहरि के चरणों मेें स्वतः ही भक्ति जागृत हो जाती है।

4) जिस प्रकार भक्त भगवान की आराधना करते हैं उसी प्रकार भगवान भी अपने भक्तों से प्रेम करते हैं इसका अर्थ है कि वैसे लोग जो संत से विमुख हो वो श्री हरि से विमुख हैं। वैसे लोगों का दर्शन न हो जिनका ईश्वर और संतों से सतसंग न हो।

मेरी योग्यता इसके योग्य नहीं है जो भगवान श्री हरि के विराट रूप के महत्व का वर्णन कर सकुँ, ये तो मात्र परमपूज्य संतों, भागवत कथा वाचकों तथा प्रवचनकार्ताओं के आशिर्वाद से प्राप्त, ज्ञान की कुछ बुंदे, प्रसाद के रूप में मैने ग्रहण किया था, उसे आप तक पहुँचाने का प्रयास मात्र है। इस कार्य में मैं कहाँ तक सफल हुँ यह आप पर निर्भर करता है।

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