Hindu God most powerful mantras and Societies Contemporary
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सोमवार, 12 सितंबर 2022
मंगलवार, 23 नवंबर 2021
धर्म और आस्था का प्रतीक छठ पर्व
छठ पर्व
धर्म और आस्था का प्रतीक छठ पर्व एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक त्योहार है जो सूर्य देव को समर्पित है, यह पर्व पृथ्वी पर जीवन और उर्जा प्रदान करने के लिए ग्रहों के देवता सूर्य भगवान को धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है। यह पर्व प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन मनाया जाता है और इसलिए इसे छठ पर्व कहा जाता है। छठ पर्व का प्रारंभ नहाय-खाय से होता है और चौथे दिन उगते सूर्य को अघ्र्य देने के साथ ही समाप्त हो जाता है। चार दिनों तक निरंतर चलने वाले इस पर्व में छठव्रती 36 घंटे का निर्जला उपवास रखती हैं, यह व्रत संतान प्राप्ति और संतान की लंबी उम्र के लिए रखा जाता है। मुख्य तौर पर यह पर्व बिहार और उत्तर प्रदेश में मनाया जाता है, लेकिन अब यह पर्व किसी प्रदेश या राज्य का नही पूरे विश्व में मनाया जाने लगा है। विश्व स्तर पर इसकी पहचान बन चुकी है।
इस पर्व को प्रकृति पुजा के रूप में भी जाना जा सकता है। आमतौर पर कहा जाता है कि उगते हुए सूर्य को सभी प्रणाम करते हैं, लेकिन भारतवर्ष ही एक मात्र ऐसा देश है जहाँ डूबते हुए सुर्य की आराधना की जाती है। आमतौर पर छठ पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है एक चैत्र मास में और दूसरी बार कार्तिक मास में। चैत्र शुक्ल पक्ष में मनाया जाने वाले छठ को चैती छठ और और कार्तिक शुक्ल पक्ष में मनाया जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहते हैं। कार्तिक महीने में मनाये जाने वाले छठ की अधिक मान्यता है और इसी महीने में लोग इस पर्व को ज्यादातर लोग मनाते हैं।
बहूत सारी मान्यताएँ हैं दंतकथा हैं, आइये आपको एक एक करके विस्तार से बताते हैं कि छठ व्रत कहाँ से प्रारंभ हुआ।
पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान राम ने लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद राम राज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास कर सूर्यदेव की आराधना की थी। ऐसा कहा जाता है कि ऐतिहासिक नगरी मूंगेर में कभी माँ सीता ने छह दिनों तक रह कर छठ पूजा की थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार 14 वर्ष वनवास के बाद जब भगवान राम अयोध्या लौटे थे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए ऋषि-मुनियों के सलाह से राजसूय यज्ञ करने का निर्णय लिया। इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए मुग्दल ऋषि को आमंत्रण दिया गया था, लेकिन मूग्दल ऋृषि ने भगवान राम और माता सीता को अपने ही आश्रम में आने को कहा। मुग्दल ऋषिने माँ सीता को गंगा जल छिड़क कर पवित्र किया एवं कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष षष्ठि तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। ऋषि के अनुसार भगवान राम एवं सीता स्वयं आये और उनके आश्रम में रहकर माता सीता ने छह दिनों तक सुर्यदेव भगवान की पूजा की थी। तब से छठ करने की परंपरा प्रारंभ हुई।
एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की सुरूआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य पूत्र महावीर कर्ण ने सूर्यदेव की पूजा प्रारंभ की थी। महावीर कर्ण भगवान सूर्य का अनन्य भक्तों में परम भक्त थे। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सुर्य को अघ्र्य देते थे। कहा जाता है कि सूर्य की कृपा से ही महान योद्वा में उनकी गिनती होती है। आज भी छठ में अघ्र्य देने की परंपरा चली आ रही है।
इसके अलावे यह भी कहा जाता है कि पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने भी सूर्यदेव की आराधना की थी, द्रौपदी अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित रूप से सूर्य भगवान की पूजा करती थीं। दुर्योधन के द्वारा कपटपूर्वक द्यूतक्रीड़ा में परास्त कर सबकुछ हड़प लिया गया था और पांडव पुत्रों को वनवास के जिए जंगल में निवास करना पडा़ था। वन के फल फूल खाकर जमीन पर शयन करते हुए केला के भोजपत्र का वस्त्र पहन कर दुःख से दिन काटने पडे़ थे। राजकन्या सुख को भोगने वाली पतिव्रता धर्म को पालन करने वाली द्रोपदी भ पतियों के साथ वन मंे दुःख भोग रही थी। जिस स्थान में द्रोपदी सहित पाण्डव पुत्र रहते थे वहाँ पर ब्रम्हदेवता तपोरूप अट्ठासी हजार मुनि पहुँचे। ऋषियों को आए हुए जानकर युधिष्ठिर अत्यन्त चिन्ता से घबरा उठे कि इन ऋषियों के भोजन के लिए क्या प्रबंध करें, मुख मलिन किये स्वामी युधिष्ठिर को देखकर द्रोपदी अत्यन्त दुःख से व्याकुल हो गयी। उसी क्षण निज पुरोहित घौम्य को पवित्र आसन पर बैठा कर प्रदक्षिणा पुर्ण कर नमस्कार करके नेत्रों में आंसू भरकर कुल धर्म रक्षिक द्रोपदी प्रेम पूर्वक गदगद वचन से बोली कि हे धौम्य इन दुखित पाण्डु पुत्रों को देखा है क्या आपका मन दुःखी नही होता। कोई उपाय बातायें। तब घौम्य जी बोले कि हे पांचाली एक उत्तम व्रत को सुनो। जिस व्रत को सुकन्या ने किया था। सभी तरह के विघ्नांे को शांत करने वाले छठ व्रत को करो।
एक दंतकथा यह भी है कि सतयुग में शयाति नाम राजा थे। उनकी एक हजार रानियाँ थी। जिनसे एक मात्र कन्या उत्पन्न हुई थी और वह अति प्रिय थी। कुछ समय बाद वह कन्या युवावस्था को प्राप्त हुई। बाल्यावस्था से ही चंचल एवं पिता के प्राण प्रिय थी। कहा जाता है कि इस पृथ्वी पर उसके समान कोई दूसरी कन्या नहीं थी इसलिए उसका नाम सुकन्या पड़ा। एक समय राजा शयाति शिकार के लिए अपने मंत्री और सेनापति के साथ जंगल गये और वहीं रहने लगे। एक दिन सुकन्या अपने सखियों के साथ फूल लेने के लिए जंगल गयी। वहाँ भार्गव वंशी च्यवन मुनि तपस्या में लीन थे, उनके शरीर में दीमक लगकर मांस खा गये हड्डी मात्र शेष रह गया था और उनकी आँख जुगनु की तरह चमक रहे थे। सुकन्या ने उनके दोनो आँख फोड़ डाली और फूल लेकर महल चली आयी। इसके बाद राजा और सेना सभी के मल-मुत्र बन्द हो गए। तीन दिन तीन रात होने के बाद राजा और सेना परेशान हो उठे, तभी राजा ने राजपुरोहित को बुलाकर पूछा कि आप अपने दिव्य दृष्टि से बताइये कि इसका क्या कारण है। तब राजपुरोहित ने बताया कि आपकी कन्या ने अज्ञानतावश च्यवन ऋषि के दोनो आँखें फोड़ दी है। जिससे उनके दोनो आँखों से रूधिर बह रहा है और उन्हीं के क्रोध के कारण ऐसा हो रहा है। आप उन्हें प्रसन्न करें तभी समस्या का समाधान होगा। आप अपनी कन्या को च्यवन ऋषि को दान दे दें इससे वह प्रसन्न हो जायेंगे। राजा ने सुकन्या को ले जा कर ऋषि के पास गये और कहा कि मेरी कन्या से अनजाने में अपराध हो गया है जिससे आपको कष्ट हो रहा है इसलिए मुनिवर आपकी सेवा में मैं अपनी कन्या आप को दे रहें हैं जिससे आपको कष्ट न हो । राजा के वचन को सुनकर ऋषि प्रसन्न हो गये और अपना क्रोध शांत कर लिया। इसके बाद राजा वापस महल में आ गये। वह सुकन्या नेत्रहीन च्यवन जी की सेवा करने लगी। एक दिन वह कन्या एक तालाब में गई, वहाँ पर उसने आभूषणों से युक्त एक नाग कन्या को देखा वह नाग कन्या सूर्यदेव का पूजन कर रही थी। यह देखकर सुकन्या नं पूछा आप क्या करती हैं। आप किस कारण यहाँ आई हैं। तो वह बोली कि मैं नाग कन्या हूँ। व्रत धारा कर सूर्य भगवान की पूजन के लिए आई हूँ। सुकन्या ने पूछा कि इस पूजा से क्या होता है, इसका क्या फल होता है। इस पूजा की विधि क्या है, इस पूजा को कब किया जाता है। नाग कन्या ने कहा कि कार्तिक मास शुक्ल पक्ष षष्ठी को सप्तमी युक्त होने पर सर्व मनोरथ सिद्धि के लिए यह व्रत किया जाता है। व्रती को पंचमी के दिन नियम से व्रत को धारण करना चाहिए। सायंकाल में खर का भोजन करके पृथ्वी पर सोना चाहिए। छठ के दिन उपवास व्रत रखना चाहिए। सूर्य भगवान को दूध और गंगाजल का अघ्र्य देना चाहिए। इस प्रकार करने से महाघोर कष्ट को दूर कर मनोवांछित फल प्राप्त होते हैं।
श्री धौम्य जी ने कहा कि हे द्रौपदी! इस नाग कन्या के वचन को सुनकर सुकन्या ने इस पवित्र उत्तम व्रत को किया और इसी व्रत के प्रभाव से च्यवन ऋषि के नेत्र पुनः प्राप्त हुए और निरोग हो गये। हे द्रौपदी तुम इसी व्रत को करो, और इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे पति पुनः राजलक्ष्मी को पायेंगे और निःसन्देह कल्याण होगा। तब द्रौपदी ने भी इस व्रत केा नियम स्वरूप् किया और इस व्रत के प्रभाव से द्रौपदी पाण्डवों सहित पुनः राजलक्ष्मी को प्राप्त किया।
पूराणांे के अनुसार, राजा प्रियवद एक न्यायप्रिय राजा थे। लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप् ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया और राजा की पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुुई लेकिन वह मृत पैदा हुआ। राजा प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागले लगे। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारन मै षष्ठी कहलाती हूँ। हे राजन तुम मेरा पूजन करो तथा लोगों को भी प्रेरित करो। राजा ने वैसा ही किया, छठी माता के पूजन के प्रभाव से उनका मृत पुत्र जीवित हो गया। या पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी हो हुई थी। मान्यता है तभी से मानस कन्या देवसेना को देवी षष्ठी या छठी मैया के रूप में जाना जाता है और पूजा की जाती है।
इस पर्व में सूर्य और छठी मैया की उपासना का विशेष महत्व होता है। नहाय खाय के दौरान व्रती अपने छठ व्रत की सफलता की कातना करते हैं और चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में तीसरे दिन कमर तक पानी में खडे़ होकर सूर्य भगवान को अघ्र्य दिया जाता है। लेकिन इस व्रत में व्रती कमर तक पानी में क्यों खडे़ होते हैं। आइये जानते हैं क्या है इसके पीछे का कारण। ऐसा माना जाता है कि कार्तिक मास के दौरान श्री हरि जल में ही निवास करते हैं और सूर्य ग्रहों के देवता माने गए हैं इसलिए सेसी मान्यता है कि नदी या तालाब में कमर तक पानि में खडे़ होकर अघ्र्य देने से भगवान विष्णु और सूर्य दोनो की ही पूजा एक साथ हो जाती है। इसके अलावे एक और भी कारण है कि किसी पवित्र नदी में प्रवेश करने मात्र से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और पूण्य फल की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही एक और मान्यता है कि जब हम सूर्य भगवान को अघ्र्य देते हैं तो जल का छींटा पैर पर नहीं पड़ना चाहिए। छठी मइया को भगवान सूर्य की बहन बताया गया है। कहा जाता है कि जो व्यक्ति इन दोनो की पूजा-अर्चना करते हैं उनकी संतानो की छठी माता रक्षा करती हैं। यह भी कहा जाता है कि भगवान की कृपा और शक्ति से ही यह चार दिनों का कठोर व्रत संपन्न हो पाता है। इस व्रत और पर्व के आयोजन का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में भी पाया जाता है। इस दिन पूण्यसलिला नदियों, तालाबों या फिर कि पोखर के किनो पर पानी में खडे़ होकर सूर्य भगवान को अघ्र्य दिया जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी के सूर्यास्त और सप्तमी के सूर्योदय के मध्य बेला मंे वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था। प्रकृति से उत्पन्न षष्ठी माता बालकों की रखा करने वाले विष्णु भगवान द्वारा रची माया हैं। बालक के जन्म के छठे दिन छठी मैया की पूजा-अर्चना की जाती है जिससे बच्चों के ग्रह-गोचर शांत हो जाएं और जिंदगी में किसी प्रकार का कष्ट नहीं आए। इस मान्यता के तहत ही इस तिथि को षष्ठी देवी का व्रत होने लगा।
छठ पूजा की धार्मिक मान्यता के साथ-साथ सामाजिक महत्व भी है। लेकिन इस पर्व की सबसे बडी़ विशेषता यह है कि इसमें धार्मिक भेदभाव, उंच-नीच, जात-पात भूलकर सभी एक साथ इसे मनातें हैं। किसी भी लोक परंपरा में ऐसा नही है। सूर्यए जो राशनी और जीवन के प्रमुख स्रोत माने हैं और इश्वर के रूप् में जो रोज दिखाई देते हैं उनकी उपासना की जाती है। इस महापर्व में शुद्धता और स्वच्छता का विशेष ख्याल रखा जाता है और कहा जाता है कि इस पूजा में किसी प्रकार की गलती होने पर तुरंत क्षमा याचना करनी चाहिए वरना तुरंत इसकी सजा भी मिल जाती है।
स्बसे बड़ी बात यह है कि यह पर्व सबको एक सूत्र में पिरोने का काम करता है। इस पर्व में अमीर-गरीब, छोटे-बडे़ का भेद मिट जाता है। सभी एक समान एक ही विधि से भगवान की पूजा करते हैं। अमीर हो या गरीब सभी मिट्टी के चूल्हे पर ही प्रसाद बनाते है, सब एक साथ एक ही समय अघ्र्य देने के लिए एक ही घाट पर बांस के बने सूप में ही अघ्र्य देते हैं। प्रसाद भी एक जैसा ही होता है। भगवान सूर्य और छठी माता भी सबपर एक कृपा बरसाते हैं। प्रकृति का यह नियम है कि वह किसी के साथ भेदीभाव नही करते इसलिए इसे प्रकृति पूजा भी कहते हं।
अगर इस पर्व को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो वैज्ञानिकता की कसौटी पर भी इसका महत्व उच्यस्तरीय है। इस पर्व में प्रयोग किये जाने वाले पदार्थ स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से स्वास्थ्य वर्धक होते हैं।
अंगोला अर्थात गन्ने का हरा पŸाा सहित गन्ना इस पर्व की मुख्य सामग्रियों में से एक है। गन्ने का ताजा रस शरीर को एनर्जी प्रदान करता है। यह पुरूषों में इंफर्टिलिटी की समस्या को भी दूर करता है। हफ्ते में तीन दिन गन्ने का रस सेवन करने से महिलाओं को मासिक धर्म की समस्या से आराम मिलता हैै। गन्ने का जूस लिवर और किडनी का फंक्शन बेहतर बनाता है और कील मुंहासों औ डैंड्रफ की समस्या से राहत पाने के लिए भी इसका सेवन किया जा सकता है। गन्ने का रस कब्ज की समस्या से भी राहत मिलता है।
नारियल का प्रयोग हर रूप से स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है। नारियल का तेल, सूखा नारियल, कोकोनट वाटर, कच्चा नारियल, का प्रयोग डिहाइड्रेशन की समस्या से निजात दिलाता है। हर दिन नारियल के प्रयोग करने से शरीक का इम्यूनिटी बढती है और यादाश्त भी बढता है। नारियल विटामिन, मिनरल कार्बोहाइड्रेड और प्राटीन से भरपूर होता है और इसमें पानी की मात्रा भी अधिक होती है। इसलिए ये बाॅडी को हाइडेªट रखता है।
पूजा में इस्तेमाल होने वाले डाभ नींबू का एक ग्लास रस पीने से व्यक्ति पूरे दिन ऊर्जावान रहता है। विटामिन सी का से भरपूर डाभ व्यक्ति के इम्यूनिटी को मजबूत करता है। एंटीआॅक्सीडेंट से भरपूर यह फल कई मौसमी संक्रमण और बीमारियों से दूर रखता है। पाचन में मददगार साबित होता है। इसको इस्तेमाल करने से पेट से जुड़ी कई समास्याओं से बचा जा सकता है। इसका जूस सेवन करने से पेट में जलन और एसिडिटी की समस्या से बचा जा सकता है। डाभ निंबू में फाइबर भरपूर मात्रा में होते है जिससे मेटाबोलिज्म स्वस्थ रहता है और वेट लाॅस में भी मदद मिलता है।
पानी फल या सिंघाड़ा पूजा में इस्तेमाल किया जाता है इसका सेवन स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है। आयुर्वेद में पिŸा, एसिडिटी, दस्त और बवासीर को ठीक करने के लिए सिंघाडे का प्रायोग किया जाता है। कच्चे सिंघाडे से बवासीर के दर्द और रक्तस्राव को ठीक किया जा सकता है। डायबटीज के रोग में भी यह कारगर सिद्ध होता है। यह ब्लड शूगर को भी नियंत्रित करता है। यह बेहद कम कैलोरी वाला फल होता है जिसके वजह से वेट लाॅस में भी कारगर होता है।
छठ पर्व में केले के वृक्ष का प्रयोग किया जाता है इनको भी देव ही माना जाता है। केले का भोग लगाया जाता है केले में सबसे ज्यादा एनर्जी पाया जाता है। केले में पोटेशियम, कैल्शियम, विटामिन सी और फाइबर होता है। यह शरीर में कोलेस्ट्राल के स्तर को नियं़ित्रत करता है जिससे हृदय रोग की संभावना कम होती है।
अंत में निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि त्योहार हमारे जीवन में खुशियाँ और उर्जा प्रदान करती है। इसलिए कोई भी त्योहार हो उसे उल्लास और उत्साह के साथ मनाना चाहिए। हर साल हम त्योहार मनाते हैं फिर साल भर उस त्योहार का बेसब्री से इन्तजार करते हैं। हम योजना बनाते हैं ढेर सारा खरीददारी करते हैं और खुशी से त्योहार मनाते हैं। यह पर्व पूरा देश मनाता है सभी अपने रिश्तेदार और मित्रगण के साथ अपने खुशी के पल को साझा करते है और साथ-साथ मनाते हैं।
बुधवार, 3 अप्रैल 2019
शनिवार, 30 मार्च 2019
शुक्रवार, 29 मार्च 2019
रविवार, 10 मार्च 2019
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